चोल साम्राज्य: परवर्ती चोल (19वीं शताब्दी ई.-12वीं शताब्दी ई.)

चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का एक प्रमुख राजवंश था, जिसने 9वीं सदी से 13वीं सदी तक महत्वपूर्ण राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभाव डाला। परवर्ती चोल काल, जिसमें 11वीं शताब्दी के बाद का समय शामिल है, साम्राज्य की राजनीतिक स्थिति और सांस्कृतिक उन्नति के संदर्भ में महत्वपूर्ण है।

1. राजनीतिक परिदृश्य

शासक और उनकी उपलब्धियाँ

  • राजेंद्र चोल I (1014-1044 ईसवी):
    • सैन्य अभियान: राजेंद्र चोल ने दक्षिण-पूर्व एशिया, विशेष रूप से श्रीविजय साम्राज्य पर विजय प्राप्त की। उनका अभियान भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर साम्राज्य की शक्ति को स्थापित करने में महत्वपूर्ण था।
    • राजस्व और प्रशासन: राजेंद्र चोल ने प्रशासनिक सुधार किए और साम्राज्य की वित्तीय स्थिति को मजबूत किया।
  • राजाधिराज चोल I (1018-1054 ईसवी):
    • सैन्य और प्रशासन: उन्होंने साम्राज्य की सैन्य शक्ति को बनाए रखा और प्रशासनिक व्यवस्था को मजबूत किया।
    • मंदिर निर्माण: राजाधिराज चोल ने विभिन्न मंदिरों का निर्माण कराया, जिनमें विशेष रूप से कांची और तंजावुर के मंदिर शामिल हैं।
  • राजेंद्र चोल II (1054-1063 ईसवी):
    • सांस्कृतिक और धार्मिक संरक्षण: उन्होंने सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों को प्रोत्साहित किया और विविध धार्मिक परंपराओं का समर्थन किया।
  • कुलोथुंग चोल I (1070-1120 ईसवी):
    • साम्राज्य का विस्तार: कुलोथुंग चोल I ने चोल साम्राज्य के उत्तरी और पश्चिमी हिस्सों का विस्तार किया।
    • वास्तुकला और कला: उन्होंने विभिन्न मंदिरों का निर्माण और कला को प्रोत्साहित किया।

साम्राज्य की राजनीतिक स्थिति

  • पश्चिमी और उत्तरी संघर्ष: परवर्ती चोल काल में साम्राज्य को पश्चिमी और उत्तरी राजवंशों, जैसे कि पांड्य और चेर राजवंशों से संघर्ष करना पड़ा।
  • साम्राज्य की कमजोरी: 12वीं शताब्दी के अंत तक, चोल साम्राज्य की शक्ति में कमी आई और उनके द्वारा नियंत्रित क्षेत्रों में विद्रोह और अस्थिरता देखने को मिली।

2. प्रशासनिक व्यवस्था

स्थानीय प्रशासन

  • प्रांतों और जिलों का विभाजन: साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों और जिलों में विभाजित किया गया था, प्रत्येक का प्रमुख एक ‘उपाध्याय’ या ‘गवर्नर’ होता था।
  • स्थानीय स्वायत्तता: ग्राम सभाएँ और नगर परिषदें स्थानीय प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।

सैन्य प्रशासन

  • सैन्य संगठन: चोल साम्राज्य में एक सुसंगठित सैन्य बल था, जिसमें पैदल सैनिक, घुड़सवार सेना, और युद्धपोत शामिल थे।
  • सैन्य अभियानों: सैन्य अभियानों का संचालन और योजनाएं सम्राट द्वारा की जाती थीं।

कराधान और वित्त

  • भूमि कर: भूमि पर आधारित कराधान प्रणाली थी, जो कृषि उत्पादन के आधार पर लागू की जाती थी।
  • व्यापार कर: व्यापारिक गतिविधियों पर कराधान किया जाता था, जो व्यापारिक गतिविधियों और राजस्व को नियंत्रित करता था।

3. कला और वास्तुकला

मंदिर वास्तुकला

  • बृहदीश्वर मंदिर:
    • स्थान: तंजावुर, तमिलनाडु।
    • विशेषताएँ: परवर्ती चोल वास्तुकला की एक प्रमुख कृति, जिसमें विशाल शिखर और समृद्ध नक्काशी शामिल है।
  • गंगईकोंडचोलपुरम:
    • स्थान: तमिलनाडु।
    • विशेषताएँ: राजेंद्र चोल द्वारा निर्मित मंदिर, जो वास्तुकला की उत्कृष्टता को दर्शाता है।

मूर्तिकला और चित्रकला

  • मूर्तिकला: चोल काल की मूर्तिकला में हिंदू देवताओं और धार्मिक प्रतीकों की उत्कृष्ट मूर्तियाँ शामिल हैं। इन मूर्तियों में शिल्प और कला की उच्चतम गुणवत्ता देखी जाती है।
  • चित्रकला: मंदिरों की दीवारों पर चित्रण और नक्काशी की जाती थी, जो धार्मिक और दार्शनिक विषयों को दर्शाती है।

4. सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन

धार्मिक जीवन

  • हिंदू धर्म: परवर्ती चोल काल में हिंदू धर्म की विभिन्न शाखाओं और पूजा पद्धतियों को प्रोत्साहन मिला।
  • बौद्ध और जैन धर्म: बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायी भी सामाजिक जीवन में शामिल थे, और उनके धार्मिक स्थलों का निर्माण हुआ।

सामाजिक संरचना

  • वर्ण व्यवस्था: वर्ण व्यवस्था का प्रभाव और जटिलता बनी रही। विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच संबंध और समरसता को प्रोत्साहित किया गया।
  • सामाजिक सुधार: कुछ सामाजिक सुधारों की शुरुआत की गई, जो सामाजिक गतिशीलता और समरसता को बढ़ावा देने का प्रयास करती थीं।

5. निष्कर्ष

परवर्ती चोल काल, साम्राज्य की राजनीतिक शक्ति, प्रशासनिक संरचना, कला और वास्तुकला में महत्वपूर्ण योगदान देने वाला समय था। इस काल में सांस्कृतिक, धार्मिक और वास्तुकला के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण विकास हुए, जो आज भी भारतीय इतिहास और संस्कृति के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। UPSC की तैयारी में इस काल की राजनीतिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक विशेषताओं को समझना महत्वपूर्ण है।

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