चोल साम्राज्य: प्रशासन, कला और वास्तुकला

चोल साम्राज्य (850-1279 ईसवी) दक्षिण भारत का एक प्रमुख राजवंश था, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चोल साम्राज्य ने अपने प्रशासनिक कौशल, कला और वास्तुकला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया।

1. प्रशासन

प्रशासनिक संरचना

  • राज्य संरचना: चोल साम्राज्य एक केंद्रीयकृत साम्राज्य था, जिसमें सम्राट सबसे उच्च पद पर था। सम्राट को “राजाधिराज” और “राजेंद्र चोल” जैसे शीर्षक दिए जाते थे।
  • स्थानीय प्रशासन: साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों और जिलों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक प्रांत और जिला स्थानीय शासकों और अधिकारियों द्वारा संचालित होते थे।
  • सैन्य और सुरक्षा:
    • सैन्य संगठन: चोल साम्राज्य के पास एक शक्तिशाली और सुव्यवस्थित सैन्य बल था। इसमें पैदल सैनिक, घुड़सवार सैनिक, और हाथी सैनिक शामिल थे।
    • सैन्य अभियानों: चोलों ने दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में कई सैन्य अभियानों का संचालन किया, जिनमें सबसे प्रसिद्ध अभियान श्रीलंका और कंबोडिया की ओर था।
  • कराधान और वित्त:
    • कर और राजस्व: चोल साम्राज्य ने भूमि कर, व्यापार कर, और अन्य करों के माध्यम से वित्तीय संसाधनों का प्रबंधन किया। करों को उचित तरीके से संकलित किया गया और प्रशासनिक कार्यों के लिए उपयोग किया गया।
    • वित्तीय प्रबंधन: चोल शासकों ने एक कुशल वित्तीय प्रबंधन प्रणाली को स्थापित किया, जिसमें वित्तीय रिकॉर्ड और लेखा प्रणाली को महत्व दिया गया।

प्रशासनिक सुधार

  • स्थानीय स्वायत्तता: चोल साम्राज्य ने स्थानीय स्वायत्तता को प्रोत्साहित किया, जिसमें ग्राम सभा और नगर परिषदों को प्रशासनिक शक्ति दी गई।
  • प्रशासनिक दस्तावेज: चोलों ने प्रशासनिक दस्तावेजों और शिलालेखों का उपयोग किया, जो आज हमें उनके प्रशासनिक और आर्थिक जीवन की जानकारी प्रदान करते हैं।

2. कला

संगीत और नृत्य

  • संगीत: चोल साम्राज्य के दौरान संगीत और नृत्य को बढ़ावा दिया गया। कर्नाटक संगीत की परंपराएँ इस काल में विकसित हुईं।
  • नृत्य: भरतनाट्यम जैसे शास्त्रीय नृत्य रूपों को प्रोत्साहन मिला। मंदिरों में नृत्य और संगीत के कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे।

साहित्य और ग्रंथ

  • साहित्यिक योगदान: चोल काल में तमिल साहित्य का विकास हुआ, जिसमें भक्ति काव्य और महाकाव्य शामिल थे।
  • साहित्यिक ग्रंथ:
    • काव्य और गीत: कावेयम (उपदेशात्मक और धार्मिक गीत) और तिरुवल्लुवर के “थिरुक्कुरल” जैसे ग्रंथों की रचना हुई।

3. वास्तुकला

मंदिर निर्माण

  • बृहदीश्वर मंदिर:
    • स्थान: तंजावुर, तमिलनाडु।
    • निर्माण: चोल सम्राट राजराज चोल I द्वारा 1010 ईसवी में निर्मित।
    • विशेषताएँ: इस मंदिर का गुंबद 66 मीटर ऊँचा है और यह भारतीय वास्तुकला की एक उत्कृष्ट कृति है। इसे “राजराजेश्वर” भी कहा जाता है।
  • बृहदीश्वर मंदिर, गंगईकोंडचोलपुरम:
    • स्थान: गंगईकोंडचोलपुरम, तमिलनाडु।
    • निर्माण: राजेंद्र चोल द्वारा 1035 ईसवी में निर्मित।
    • विशेषताएँ: यह मंदिर भी वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें नक्काशी और सजावट का अद्वितीय प्रयोग किया गया है।
  • सिवगंगई मंदिर:
    • स्थान: तमिलनाडु।
    • विशेषताएँ: मंदिर की निर्माण शैली और स्थापत्य विशेषताएँ चोल वास्तुकला की विशेषताओं को दर्शाती हैं।

वास्तुकला की विशेषताएँ

  • शिल्प और नक्काशी: चोल मंदिरों में उत्कृष्ट शिल्प और नक्काशी का उपयोग किया गया। देवी-देवताओं, धार्मिक कथा और पुरानी परंपराओं को चित्रित करने वाली अद्भुत नक्काशी की गई।
  • वास्तुकला की शैली: चोल वास्तुकला की शैली में समृद्ध और जटिल शिल्प और मंडपों का निर्माण शामिल था। मंदिरों की बाहरी दीवारों पर बारीक नक्काशी की गई थी।
  • वास्तुकला के इनोवेशन: गुंबदों और शिखरों की ऊँचाई और निर्माण में विशेष तकनीक का प्रयोग किया गया।

4. निष्कर्ष

चोल साम्राज्य ने भारतीय उपमहाद्वीप में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें प्रशासनिक दक्षता, कला, और वास्तुकला के क्षेत्र में महान योगदान दिया। चोल साम्राज्य की स्थापत्य और सांस्कृतिक उपलब्धियाँ आज भी भारतीय इतिहास और संस्कृति के महत्वपूर्ण भाग के रूप में मान्यता प्राप्त हैं। UPSC की तैयारी में चोल साम्राज्य की प्रशासनिक संरचना, कला और वास्तुकला की विशेषताओं को समझना महत्वपूर्ण है।

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